भूतनी की बारात
भारत के एक छोटे से गाँव बनकटपुर की बात है। गाँव ग़रीब था, मिट्टी के कच्चे घर, घासफूस की छतें, मगर लोग दिल से अमीर थे। चारों ओर हरे-भरे खेत, जिनमें गेहूँ की बालियाँ हवा में झूमतीं, नहर का ठंडा पानी बच्चों की हँसी के साथ बहता, और पेड़ों पर बैठी चिड़ियाँ ऐसे गातीं जैसे पूरा दिन कोई मेला हो।
गाँव के आँगनों में गायें घंटियाँ बजातीं, बकरियाँ बच्चों के पीछे-पीछे दौड़तीं, घोड़े शादी-ब्याह में दूल्हे को सजाने के लिए ही रखे जाते थे, और बिल्ली तो हर घर की सदस्य थी—कभी दूध चुरा लेती, तो कभी चुपचाप बच्चों के साथ सो जाती।
गाँव में लोग ग़रीबी में भी खुश थे। कोई सोने-चाँदी नहीं था, मगर रिश्तों का सोना था। शाम को सब लोग बरगद के नीचे जमा होते, बीड़ी पीते, हँसते, गाते और कहानियाँ सुनते।
मगर गाँव में एक ही डरावनी बात मशहूर थी—“भूतनी की बारात”।
कहते हैं, बरसों पहले गाँव की सीमा पर एक पेड़ के नीचे दफ़न एक औरत की आत्मा रहती थी। वह मरते वक्त दुल्हन बनी थी, मगर उसकी शादी पूरी नहीं हो पाई। तब से, हर साल सावन के महीने में, वह पूरी बारात लेकर आती। ढोल-नगाड़े बजते, घोड़े हिनहिनाते, पर बाराती सब भूत होते।
लोग कहते, जिसने भी वह बारात देखी, वह अगले दिन पागल होकर गाना गाता:
“अरे राम जी, दुल्हन भूतनी है!”
गाँव के बच्चे इस कहानी को मज़ाक बनाकर गाते-गुनगुनाते।
मज़ेदार डर
गाँव का लड़का रामखेलावन बड़ा नटखट था। ग़रीब किसान का बेटा, पर हँसी-मज़ाक उसका असली हथियार था। खेत में हल चलाते हुए भी मज़ाक करता, “बैलवा मेरे साथ जीमबे (खाना खाएँगे) का रे?” और बैल सच में हूँऽऽऽ करके आवाज़ कर देते।
रामखेलावन की नज़र पड़ चुकी थी फूलकली पर—गाँव की सबसे चंचल लड़की। फूलकली बकरियों के साथ खेलती, और हँसते-हँसते उसकी चूड़ियाँ खनकतीं। दोनों की आँखें मिलतीं, तो आसमान का चाँद भी मुस्कुरा उठता।
एक दिन रामखेलावन ने कहा,
“फूलकली, सुनी हो? इस साल भूतनी की बारात फिर आने वाली है।”
फूलकली ने आँखें घुमा दीं,
“अरे हटो! तुम लड़कों को बस डराना आता है। कोई भूत-प्रेत नहीं होता।”
रामखेलावन हँसते हुए बोला,
“तो चलो, इस बार हम दोनों वहीं जाकर देखते हैं। अगर सच में बारात आई, तो तुम मेरी दुल्हन, अगर नहीं आई तो मैं तुम्हारा बकरा चराऊँगा।”
गाँव भर में यह शर्त मशहूर हो गई। सबको मज़ा आ गया—अब तो देखना था कि भूतनी की बारात सच्ची है या झूठी।
सावन की रात
दिन बीते, और सावन की अंधेरी रात आ पहुँची। आसमान में बादल गरज रहे थे, चाँद कभी निकलता, कभी छिपता।
रामखेलावन और फूलकली गाँव के किनारे उस पेड़ के पास पहुँचे। साथ में कुछ और गाँव के लड़के-लड़कियाँ भी छुपकर देखने आ गए। बकरियाँ मे-मे करतीं, घोड़े अचानक बेचैन होकर हिनहिनाने लगे, बिल्ली ने जोर से म्याऊँऽऽऽ किया और भाग गई।
अचानक हवा ठंडी हो गई। ढोल की धम-धम आवाज़ आने लगी। पेड़ के नीचे से धुँध उठी, और देखते-देखते पूरा नज़ारा बदल गया।
घोड़े सफ़ेद आग जैसे चमकते, बाराती बिना पाँव के उड़ते-उड़ते नाचते, और सबसे आगे भूतनी दुल्हन निकली—लाल जोड़े में, मगर चेहरा डरावना।
गाँव वाले छुपे-छुपे यह देखकर काँपने लगे।
फूलकली का हाथ रामखेलावन के हाथ में काँप रहा था। उसने डर के मारे कहा,
“अरे, ये तो सच्ची बारात है रे!”
रामखेलावन भी डर से पसीने-पसीने हो गया, मगर बोला,
“डर मत फूलकली… मैं हूँ न!”
इतना कहकर वह ज़ोर से चिल्लाया:
“भूतनी भौजी! हमारी भी मिठाई खिलाओ!”
सारी बारात अचानक रुक गई। भूतनी दुल्हन ने घूँघट उठाया और मुस्कुराई। उसकी हँसी ऐसी थी कि पेड़ से सारे उल्लू उड़ गए।
हँसी का मेला
भूतनी बोली,
“अरे रे! इतने साल बाद कोई इंसान हिम्मत करके मुझसे बातें कर रहा है। चलो, तुम्हें भी अपनी बारात में नचाएँगे!”
और देखते-ही-देखते सारे भूत बाराती ढोल-नगाड़े बजाने लगे। रामखेलावन को घोड़े पर बैठाकर दूल्हा बना दिया गया। फूलकली को बगल में बिठा दिया।
गाँव वाले झाड़ियों के पीछे छुपकर यह नज़ारा देखते-देखते हँसी से लोटपोट हो गए।
रामखेलावन ने फूलकली से धीरे कहा,
“देखा, अब तो तू मेरी दुल्हन बन गई!”
फूलकली शर्म से हँसी, मगर बोली,
“हाँ, मगर ये दूल्हा तो भूतनी का है, मेरा नहीं।”
भूतनी खिलखिलाई,
“अरे चिंता मत करो बच्चा! मैं तो हर साल बस मज़ाक करने आती हूँ। मेरा असली दूल्हा तो बरसों पहले चला गया। अब तो बस तुम्हारे गाँव में नाच-गाना करके चली जाती हूँ।”
फिर उसने सबको मिठाई की जगह भूतिया हलवा बाँटा। किसी ने खाया, तो उसका चेहरा काला हो गया, किसी का कान लंबा हो गया। बच्चे तो और भी मज़े से हँस-हँसकर लोटपोट होने लगे।
गाँव की सुबह
जब सूरज निकला, तो सब भूत अचानक गायब हो गए। गाँव वाले पेड़ के नीचे जमा हुए। वहाँ सचमुच ढोल पड़े थे, और ज़मीन पर गुड़ जैसी मिठाई गिरी थी।
लोग हँसते-हँसते कहने लगे,
“भूतनी हो या देवता, बनकटपुर में भी बारात निकाल दी!”
फूलकली अब रामखेलावन को देखकर मुस्कुरा रही थी। भूतनी की मज़ाकिया बारात ने दोनों की जोड़ी बना दी।
गाँव फिर अपनी ग़रीबी में लौट आया—गायें रम्भातीं, बकरियाँ मे-मे करतीं, घोड़े खेत जोतते, और बिल्लियाँ दूध की तलाश में घूमतीं। मगर अब हर शाम गाँव वाले हँसी-मज़ाक में कहते,
“देखो-देखो, कहीं रामखेलावन को भूतनी भौजी फिर से दूल्हा बनाने न आ जाए!”
और पूरा गाँव ठहाकों से गूँज उठता।
कहानी का संदेश
ग़रीबी और डर के बीच भी, अगर हँसी और प्यार हो तो ज़िंदगी खूबसूरत रहती है। गाँव की असली सुंदरता सिर्फ़ हरियाली और जानवरों में नहीं, बल्कि उन खुशदिल लोगों में है, जो डर को भी हँसी में बदल देते हैं।
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