उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव बिठूर में, जहाँ शाम ढलते ही दिए टिमटिमाने लगते हैं और रातें भयानक खामोशी में डूब जाती हैं, गाँव की सीमा पर एक पुराना बरगद का पेड़ खड़ा था।
गाँव वाले कहते थे —
“उस पेड़ के पास सूरज ढलने के बाद मत जाना।”
कहानी थी "चंपा" की — एक विधवा औरत, जिस पर लोगों ने जादू-टोना करने का आरोप लगाया था। गाँव में जब अकाल पड़ा, कुएं सूख गए और खेत जल गए, तो लोगों ने उसी पर दोष मढ़ दिया।
एक रात, भीड़ ने उसे उस बरगद से बाँध दिया और वहीं मरने के लिए छोड़ दिया। उसकी चीखें अंधेरे में गूंजती रहीं... और फिर सुबह होने से पहले सब शांत हो गया।
लेकिन शांति केवल बाहर की थी।
उस रात के बाद, जब भी कोई उस पेड़ के पास गया, फुसफुसाहटें सुनाई देने लगीं — कभी नाम लेकर पुकारती, कभी रोती हुई आवाजें। बच्चे अगर गलती से पास खेलते, तो चुप हो जाते, जैसे उनकी आवाज छीन ली गई हो।
जानवर उस पेड़ को देख कर काँपने लगते।
हर साल उस रात, जब चंपा की मौत हुई थी, पेड़ के चारों ओर लाल धुंध छा जाती। गाँव वाले दरवाज़े बंद कर लेते, दीये बुझा देते।
एक बार करन, एक शहर का पत्रकार, गाँव आया। उसे इन बातों पर विश्वास नहीं था। उसने कहा,
“मैं पेड़ के पास रात बिताऊँगा, कैमरा लेकर। सच दिखाऊँगा सबको।”
गाँव वालों ने बहुत रोका, पर वह नहीं माना।
आधी रात को, वह अपने कैमरे के साथ पेड़ के पास बैठा। हवा अचानक ठंडी हो गई। कैमरा अजीब से शोर करने लगा। तभी सुनाई दी — फुसफुसाहट... धीमी, फिर तेज... जैसे भीड़ गुस्से में कुछ कह रही हो।
कैमरे में उसने देखा —
एक औरत... लाल फटी साड़ी में... आधा जल चुका चेहरा... सूनी आँखें...
वह उसके पीछे खड़ी थी।
जब करन ने पीछे देखा — वहाँ कोई नहीं था।
कैमरे में आखिरी बार जो रिकॉर्ड हुआ, उसमें करन चीख रहा था, और काले बालों की मोटी लटें उसके चेहरे को घेरती जा रही थीं... जैसे उसे उस पेड़ में खींच रही हों।
सुबह उसका कैमरा मिला —
पर करन नहीं।
अब गाँव वाले कहते हैं,
"वो पेड़ अब सिर्फ चंपा की नहीं... करन की आत्मा भी वहीं रहती है..."
हर साल, लाल धुंध और भी घनी होती जा रही है।
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